Tuesday 13 October 2015

स्त्रियों की महत्ता और देवीपूजन

-महावीर सांगलीकर 
samdolian@gmail.com 


ईश्वर यह एक कल्पना मात्र ही जो मानव के दिमाग की उपज हैं. प्राचिन काल में मानव ने जब ईश्वर की कल्पना की तब वह देवी रूप में ही की थी, क्यों कि उस समय का समाज मातृसत्ताक था. उस समय लोग संकट काल में माता की शरण में जाते थे. आज भी जब आप संकट काल में होते हैं तब आप को माता की याद आती हैं, पिता की नहीं. जब आपको ठेंस लगती हैं, दर्द होता है तो आपको मां की याद आती है, बाप की नहीं. लॉजिक यह है कि प्राचिन काल में ईश्वर स्त्री ही थी, न कि पुरुष. इसके कई सबूत भी हैं जो सिंधू सभ्यता सहित अनेक प्राचिन सभ्यताओं के अवशेषो में पाये जाते हैं.

आगे चलकर मातृसत्ताक पद्धती कमजोर हो गयी और उसकी जगह पितृसत्ताक पद्धति ने ली. स्त्रियों की महत्ता को नकारा गया. स्त्री ईश्वर की जगह पुरुष ईश्वर ने ली. इस पुरुष ईश्वर को जगत का कर्ता-धर्ता माना गया. (सोचने की बात यह है कि जगत का निर्माण अगर ईश्वर ने किया है, और अगर वह जगत का पालन कर्ता है, तो ईश्वर का स्त्री होना जादा तय है, क्यों कि स्त्री निर्माण का और पालन का प्रतिक हैं, जब कि पुरुष विध्वंस का).  

दुनिया के सभी धर्म पुरुषों ने स्थापित किये हैं. धर्म ग्रंथ भी पुरुषों ने ही लिखे हैं. पुरुष तो अहंकारी होते हैं. तो कहने की जरूरत नहीं हैं कि दुनिया का एक भी धर्म या ग्रंथ स्त्रियो की महत्ता को मानता नहीं.
जैन, बौद्ध जैसे समतावादी धर्मों ने तो काल्पनिक कर्ता धर्ता ईश्वर को नकारा और इन्सान को ही ईश्वर (भगवान, बुद्ध आदी) बनने का मौका दिया. लेकिन इन दोनों धर्मो ने भी स्त्री को समानता देने से इन्कार कर दिया. भगवान बुद्ध ने अपने संघ में स्त्रियों को प्रवेश देने की अनुमति नहीं दी थी, और जैन समाज का एक बडा संप्रदाय मानता है कि स्त्रियों की मुक्ति नहीं होती.

अगर आप आस्तिक हैं और आपको ईश्वर की जरुरत हैं, तो आपको किसी देवी की शरण में जाना चाहिये. यह देवी किसी मंदिर में हो सकती है, या आप इसे किसी जीती-जागती स्त्री में भी पा सकते हैं. जैसे कि मां, पत्नि, बेटी, प्रियतमा आदी.